मध्य प्रदेश के प्रमुख लोकनृत्य
अनेकता में एकता को संजोये हुए भारत उस
गुलदस्ते की तरह हैं जिसमें भिन्न-भिन्न
रंगों के फूलों एवं पत्तियों को इस तरह रखा जाता है कि उनकी शोभा
द्विगुणित हो जाती है। इसी तरह हमारे देश की सीमा के विभिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों की अपनी अलग-अलग भाषा एवं संस्कृति के साथ साथ इन
क्षेत्रों की अपनी अलग ही लोक गीतों व लोक
नृत्यों की समृद्ध विरासत भी हैः जो आज इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया की चकाचौंध में कहीं न कहीं लुप्त होती जा रही है। जो मनुष्य संगीत साहित्य कला से विहीन हैं वे
साक्षात् पशु के समान है, यद्यपि उनके सींग और पूँछ नहीं होते
फिर भी वे पशु समान हैं, विद्वानों का मानना
है कि जो जनजातियां नाचती गाती नहीं - उनकी संस्कृति समाप्त हो जाती हैं। ऐसे में
आवश्यकता इस बात की है कि हम विलुप्त हो रही इन लोक
नृत्यों एवं लोक गायनों के धरोहर को संजो कर नहीं रख पाये तो आने वाली पीढ़ी के लिए इसकी जानकारी भी शेष नहीं रह जायेगी। भारत के किसी अन्य
हिस्से की तरह मध्यप्रदेश भी देवी-देवताओं के समक्ष किए जानेवाले
और विभिन्न अनुष्ठानों से संबंधित लोक नृत्यों द्वारा अपनी संस्कृती
का एक परिपूर्ण दृश्य प्रदान करता है।
अपने लोकनृत्य के लिए खास पहचान रखने वाले
किसी खास राज्य का नाम लेना हो, तो मध्य प्रदेश का नाम स्वतः ही जुबां
पर आ जाता है. यहां हर संस्कृति में उत्साह
बनाने का अपना अलग ढंग और कला है।- करमा नृत्य : मध्य प्रदेश के गोंड और बैगा आदिवासियों का प्रमुख नृत्य है। जो मंडला के आसपास क्षेत्रों में किया जाता है। करमा नृत्य गीत कर्म देवता को प्रशन्न करने के लिए किया जाता है। यह नृत्य कर्म का प्रतीक है। जो आदिवासी व लोकजीवन की कर्म मूलक गतिविधियों को दर्शाता है। यह नृत्य विजयदशमी से प्रारंभ होकर वर्षा के प्रारंभ तक चलता है। ऐसा माना जाता है कि करमा नृत्य कर्मराजा और कर्मरानी को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है इसमें प्रायः आठ पुरुष व आठ महिलाएं नृत्य करती है। ये गोलार्ध बनाकर आमने सामने खड़े होकर नृत्य करते है। एक दल गीत उठता है और दूसरा दल दोहराता है | वाध्य यन्त्र मादल का प्रयोग किया जाता है नृत्य में युवक युवती आगे पीछे चलने में एक दुसरे के अंगुठे को छूने की कोशिश करते है |
बैगा
आदिवासियों के करमा को बैगानी करमा कहा जाता है ताल और लय के अंतर से यह चार प्रकार का होता है।
- करमा खरी
- करमा खाय
- करमा झुलनी
- करमा लहकी |
संक्षेप
में करमा नृत्य की विशेषताएं : यह नृत्य कर्म को महत्त्व देने वाला है। यह गौंड, बैगा जनजाति के कृषकों द्वारा
किया जाता है | यह नृत्य गीत, लय,
ताल
के साथ पद संचालन पर आधारित है। करमा नृत्य जीवन की व्यापक गतिविधियों
से सम्बंधित है। यह नृत्य दशहरे से वर्षाकाल के आरम्भ अर्थात
अक्टूबर
से जून तक चलता है।
राई नृत्य : मध्य प्रदेश के प्रमुख लोकनृत्य राई को
इसके क्षेत्र के आधार पर दो
भागों में बांटा जा सकता है। बुंदेलखंड का राई नृत्य और बघेलखंड का राई नृत्य | बुंदेलखंड का राई नृत्य : राई
नृत्य बुंदेलखंड का एक लोकप्रिय
नृत्य है यह नृत्य उत्सवों जैसे विवाह, पुत्रजन्म आदि
के अवसर पर किया जाता है। अशोकनगर जिले के करीला
मेले में राई नृत्य का आयोजन सामूहिक रूप से
किया जाता है। यहाँ पर लोग अपनी मन्नत पूर्ण होने पर देवी के मंदिर के समक्ष लगे मेले में राई नृत्य कराते है। यह राई का धार्मिक स्वरुप
है। राई नृत्य के केंद्र में एक नर्तकी
होती है जिसे स्थानीय बोली में बेडनी कहा जाता
है। नृत्य को गति देने का कार्य एक मृदंगवादक पुरुष द्वारा किया जाता है। राई नृत्य के विश्राम की स्थिति में स्वांग नामक लोकनाट्य
भी किया जाता है जो हंसी मजाक व गुदगुदाने का
कार्य करता है। विश्राम के उपरांत पुनः राई
नृत्य प्रारंभ किया जाता है। अन्य लोकनृत्यों में जो बात प्रायः नहीं पाई जाती है वह है राई में पाई जाने वाली तीव्र गति, तत्कालीन
काव्य रचना और अद्वितीय लोक संगीत |
संगीत
में श्रृंगार व यौवन झलकता है। बघेलखंड का
राई नृत्य : बुंदेलखंड की तरह बघेलखं में भी राई नृत्य किया
जाता है परन्तु यहाँ पर नृत्य में कुछ विभेद आ
जाते है जैसे बुंदेलखंड में राई नृत्य
बेडनी द्वारा किया जाता है वहीँ बघेलखंड में पुरुष ही स्त्री वेश धारण कर राई नृत्य प्रस्तुत करते है इसके अतिरिक्त बुन्देलखंड में वाद्ययंत्र के तौर पर मृदंग का प्रयोग किया जाता है वहीँ बघेलखंड में
ढोलक व नगड़िया का उपयोग किया जाता है।
बघेलखंड में राई नृत्य विशेष रूप से अहीर पुरुषों
द्वारा किया जाता है परन्तु कहीं कहीं पर ब्राम्हण स्त्रीयों में भी इसका प्रचलन पाया जाता है | पुत्र
जन्म पर प्रायः वैश्य महाजनों के यहाँ पर भी
राई नृत्य का आयोजन किया जाता है। स्त्रियाँ हाथों, पैरों और
कमर की विशेष मुद्राओं में नृत्य करती है। राई
नृत्य के गीत श्रृंगार परक होते है।
स्त्री नर्तकियों की वेश-भूषा व गहने परंपरागत होते है। पुरुष धोती, बाना
, साफा, और पैरों में घुंघरू बांधकर नाचते है।
- बधाई नृत्य : खुशियां हर घर में दस्तक देती हैं. कभी बच्चे के जन्म के रूप में तो कभी शादी-ब्याह के अवसर पर, ये ऐसे मौके होते हैं जब परिवार की खुशियों में गली-मोहल्ले का हर शख्स दिल से शामिल होता है। बुंदेलखंड के कुछ भाग, जो मध्य प्रदेश से जुड़े हुए हैं, वहां इसकी खास मौकों पर रंगत देखने को मिलती है. कहा जाता है कि बधाई नृत्य यूं तो अब हर घर में का हिस्सा है, लेकिन एक वक्त था, जब बधाई बजवाने यानि बधाई नृत्य करवाने का अधिकार केवल बुंदेलखण्ड के राजाओं को ही रहा।
राजशाही जाने के बाद यह अधिकार जमींदारों के पास आ गया. जमींदारी प्रथा
खत्म होने के बाद भी बुंदेलखंड के गांवों में छोटे
तबके के लोगों को घर में बधाई बजवाने का
अधिकार नहीं है।आदिवासी
समुदाय के लोग केवल गांव के कथित बड़े लोगों के
घर केवल बधाई-नृत्य कर सकते हैं. इसमें संगीत वाद्ययंत्र की धुनों
पर पुरुष और महिलाएं सभी ज़ोर-शोर से नृत्य करते हैं। नर्तकों की कोमल और कलाबाज़
हरकतें और उनके रंगीन पोशाक दर्शकों को आश्चर्य से भर देती हैं।
- भगोरिया
नृत्य : भगोरिया नृत्य अपनी विलक्षण
लय और डांडरियां नृत्य के माध्यम से मध्यप्रदेश की बैगा आदिवासी जनजाति की
सांस्कृतिक पहचान बन गया है। बैगा के पारंपरिक लोक गीतों और नृत्य के साथ दशहरा
त्योहार की उल्लासभरी शुरुआत होती है। दशहरा त्योहार के अवसर पर बैगा समुदाय के
विवाहयोग्य पुरुष एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं, जहां
दूसरे गांव की युवा लड़कियां अपने गायन और डांडरीयां नृत्य के साथ उनका परंपरागत
तरीके से स्वागत करती है। यह एक दिलचस्प रिवाज है, जिससे
बैगा लड़की अपनी पसंद के युवा पुरुष का चयन कर उससे शादी की अनुमति देती है। इसमें
शामिल गीत और नृत्य,
इस रिवाज द्वारा प्रेरित होते
हैं। माहौल खिल उठता है और सारी परेशानियों से दूर, अपने
ही ताल में बह जाता है।
- मटकी : मालवा
जितना अपने खान-पान और पहनावे के लिए मशहूर है, उतना ही अपनी लोकसंस्कृति के लिए भी जाना जाता है. यहां का मटकी
नृत्य अंतराष्ट्रीय स्तर के मंचों पर भी
ख्याति पा चुका है. खास बात यह है कि बाकी नृत्यों
में जहां पुरूष साथी की जरूरत होती है, वहीं इसमें महिलाएं अकेले ही नृत्य करती हैं। यह
नृत्य शुरू होता है एक अकेली महिला के साथ, जिसे स्थानीय
स्तर पर झेला कहा जाता है। इसके बाद अन्य नर्तकियां पारंपरिक
मालवी
कपड़े पहने और चेहरे पर घूंघट ओढे शामिल हो जाती हैं। चूंकि नृत्य करने वाली झेला अपने सिर पर एक साथ कई मटकियों को रखकर नृत्य
करती है, इसलिए इसे मटकी नृत्य कहा जाता है।
गणगौर : गणगौर नृत्य मध्य प्रदेश के निमाड़ में मुख्यत: ‘गणगौर त्यौहार’ के दौरान देखने को मिलता है. माना जाता है कि यह नृत्य माता पार्वती को समर्पित माना जाता है. इस दौरान हर समुदाय की महिलाएं सिर पर दोनों देवताओं की मूर्तियां रखकर मंगलगान करती हैं। ईष्ट की आराधना में किए जाने वाले इस नृत्य के लिए विशेष तौर पर लाल रंग का घाघरा और पीले रंग की चुनरी ओढ़ी जाती है। निमाड़ में वैसे तो पर्दा-प्रथा है, लेकिन यही एक मौका होता है जब महिलाएं बिना घूंघट लिए स्वतंत्र भाव से केवल भक्ति का आनंद लेती हैं। साथ ही वह एक दूसरे का हाथ पकड़कर एक घेरा बनाकर माता गौरी के सामने अपने पति की लंबी उम्र की प्रार्थना करती हैं।
बरेडी : मध्य प्रदेश में दीपावली की रात से लेकर अगली पूर्णिमा तक बरेडी नृत्य का चलन है। यह मप्र के सबसे आश्चर्यजन नृत्य प्रदर्शनों में से एक है। इसमें पुरूष कलाकार नृत्य करते हुए हवा में उछाल मारने, तलवार पर चलने, आग से खेलने जैसे कई करतब करके दिखाते हैं। साथ ही इसमें एक पुरुष कलाकार की प्रमुखता में, रंगीन कपड़े पहने 8-10 युवा पुरुषों का एक समूह नृत्य करता हैं। आमतौर पर, दीवारी नामक दो पंक्तियां की भक्ति कविता से इस नृत्य-प्रदर्शन की शुरूआत होती है। इस नृत्य की शुरूआत मजदूर तबके में हुई मानी जाती है. खासतौर पर बसोर, डुमार, सहरिया, अहीर आदिवासी, जिन्हें जमींदारी-प्रथा के दौरान सबसे दबा कुचला समझा जाता था, वे अपने मनोरंजन के लिए बरेडी नृत्य करते थे। दीपावली एक ऐसा मौका होता था, जब मजदूरों को 15 दिन का अवकाश मिलता था। मजदूर इन 15 दिनों की स्वतंत्रता का जश्र मनाने और मनोरंजन के लिए करतबों से भरे बरेडी नृत्य को किया करते थे।
नौराता : मनचाहे वर की कामना के लिए हिंदू परिवारों में कई व्रत और त्यौहार हैं। कहा जाता है शिव की आराधना से वैसा ही पति मिलता है, जैसा कि कुंवारी लड़की कामना करती है. कल्पनाओं के राजकुमार के मिलने के किस्सों को छोड़ भी दिया जाए, तो कम से कम इस बहाने भगवान की आराधना तो हो ही जाती है।इन सबसे अलग छतरपुर, सागर, पन्ना, टीकमगढ़, दमोह, दतिया, भिंड, सतना आदि की लड़कियां मनचाहे वर की कामना लिए ईश आराधना तो करती हैं, लेकिन वे भूखे-प्यासे रहकर नहीं बल्कि आने वाले कल के सपनों को आंखों में लिए हर्ष में झूमती हैं। उल्लास से भरे इसी पर्व पर एक खास किस्म का नृत्य किया जाता है, जिसे नौराता नृत्य कहा जाता है. इस नृत्य से पहले महिलाएं नौराता की रंगोली बनाती हैं, फिर झूमकर नाचती हैं। माना जाता है कि वह नृत्य के माध्यम से ईश्वर से कामना करती हैं कि उन्हें भी राम जैसा पति मिले।
सुयश मिश्रा
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